Monday, December 6, 2010

महरा=Mehra पुर्लिंग

مہرا/महरा/मिहरा/ मुहरा/
ये तीनो लफ्ज़ जिनके आखिर मे अलिफ़ आता है  हिंदी के हैं इनका भी उच्चारण से मतलब बदल जाता है
इसमें महरा भी पुर्लिंग है और मुहरा भी पुर्लिंग है 
महरा=Mehra पुर्लिंग 
अर्थ -डोली या पालकी उठाने वाला कहार,और कहारों का मुखिया अफसर  
मुहरा Muhra/मोहरा (पुर्लिंग) 
अर्थ=जिसकी आड़ ली जाए,सामना,निशाना,ज़द
मुहावरे  =मुहरा बनाना,मुहरा बनना,आदि
मिहरा/mihra हिंदी इसका अर्थ है वो मर्द जिस मे हाव-भाव ज़नाना हों यानि जो औरतो जैसा बर्ताव करे अंग्रेजी मे इसे गे कहते हैं ,इसी से देहाती लफ्ज़ मेहरारू बना है


  مہرہ / मुहरा /अगर उसके आखिर मे उर्दू की ह लिखी जाए तो ये शब्द  फ़ारसी का हो जाता है जो पुर्लिंग होता है
और ये शब्द शतरंज के मुहरे के तौर पर आम हुआ इसके और अर्थ हैं=शतरंज का मुहरा,गोट,कोडी,सीप,एक खास किस्म का पत्थर,

1857 का नायक कालू माहरा

1857 का नायक कालू माहरा
« on: May 11, 2007, 04:50:43 PM »



लोहाघाट (चंपावत)। देश की आजादी की पहली लड़ाई में काली कुमाऊं की अहम भूमिका रही है। यहां से अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ उठा विरोध का स्वर भले ही अंजाम तक न पहुंचा हो, लेकिन ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिलाने देने वाले इस विद्रोह ने पूरी क्रांति नया रंग दे दिया और इसी क्रांति के चलते काली कुमाऊं के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अपनी जान देश के लिए न्यौछावर कर दी।
   काली कुमाऊं में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत का झंडा कालू सिंह महरा ने बुलंद किया। उन्होंने पहले स्वतंत्रता संग्राम में काली कुमाऊं के लोगों की मंशा को भी विद्रोह के जरिए जाहिर करावा दिया। हालांकि इसकी कुर्बानी उन्हे स्वयं तो चुकानी ही पड़ी साथ ही उनके दो विश्वस्त मित्र आनंद सिंह फत्र्याल व विशन सिंह करायत को अंग्रेजों ने लोहाघाट के चांदमारी में गोली से उड़वा दिया।
   आजादी की पहली लड़ाई में काली कुमाऊं में हुआ गदर आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। यहां कालू सिंह महरा के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ हुई बगावत ने ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिला कर रख दी थी। सिर्फ कालू महरा ही नहीं बल्कि आनंद सिंह फत्र्याल और बिशन सिंह करायत ने भी अपने प्राणों की आहुति दी। कालू सिंह महरा का जन्म लोहाघाट के नजदीकी गांव थुआमहरा में 1831 में हुआ। कालू सिंह महरा ने अपने युवा अवस्था में ही अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद किया। इसके पीछे मुख्य कारण रूहेला के नबाव खानबहादुर खान, टिहरी नरेश और अवध नरेश द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ बगावत के लिए पूर्ण सहयोग सशर्त देने का वायदा था। इसके बाद कालू माहरा ने चौड़ापित्ता के बोरा, रैघों के बैडवाल, रौलमेल के लडवाल, चकोट के क्वाल, धौनी, मौनी, करायत, देव, बोरा, फत्र्याल आदि लोगों के साथ बगावत शुरू कर दी और इसकी जिम्मेदारी सेनापति के रूप में कालू माहरा को दे दी गई। पहला आक्रमण लोहाघाट के चांदमारी में स्थिति अंग्रेजों की बैरेंकों पर किया गया। आक्रमण से हताहत अंग्रेज वहां से भाग खड़े हुए और आजादी के दिवानों ने बैरोंकों को आग के हवाले कर दिया।
   पहली सफलता के बाद नैनीताल और अल्मोड़ा से आगे बढ़ रही अंग्रेज सैनिकों को रोकने के लिए पूरे काली कुमाऊं में जंग-ए-आजादी का अभियान शुरू हुआ। इसके लिए पूर्व निर्धारित शर्तो के अनुरूप पूरे अभियान को तीनों नवाबों द्वारा सहयोग दिया जा रहा था। आजादी की सेना बस्तिया की ओर बढ़ी, लेकिन अमोड़ी के नजदीक क्वैराला नदी के तट पर बसे किरमौली गांव में गुप्त छुपाए गए धन, अस्त्र-शस्त्र को स्थानीय लोगों की मुखबिरी पर अंग्रेजों ने अपने कब्जे में ले लिया और काली कुमाऊं से शुरू हुआ आजादी का यह अभियान बस्तिया में टूट गया। परिणाम यह हुआ कि कालू माहरा को जेल में डाल दिया गया, जबकि उनके नजदीकी सहयोगी आनंद सिंह फत्र्याल एवं बिशन सिंह करायत को लोहाघाट के चांदमारी में अंग्रेजों ने गोली से उड़ा दिया।
   अंग्रेजों का कहर इसके बाद भी खत्म नहीं हुआ और अस्सी साल बाद 1937 तक काली कुमाऊं से एक भी व्यक्ति की नियुक्त सेना में नहीं की गई। इतना ही नहीं अंग्रेजों ने यहां के तमाम विकास कार्य रुकवा दिए और कालू माहरा के घर पर धावा बोलकर उसे आग के हवाले कर दिया। यह पूरा संघर्ष 150 साल पहले काली कुमाऊं के लोहाघाट क्षेत्र से शुरू हुआ और आज इसी याद को ताजा करने यहां के लोगों ने अपने अमर शहीदों की माटी को दिल्ली के लिए रवाना किया।

जो लोग अपना इतिहास भूल जाते हैं,वे कभी अपना इतिहास नहीं बना सकते डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर

जो लोग अपना इतिहास भूल जाते हैं,वे कभी अपना इतिहास नहीं बना सकते
डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर

हमारा इतिहास

सभी मानव जिज्ञासु प्रवत्ति के होते है अपने वर्ग वंश के विकास के लिए ,हम कौन थे यह जानने की लालसा सभी में पाई जाती है|भारत में अनेक जातियों तथा वंश के लोग निवास करते है| जिसमे महार जाती के लोग भारत के कई प्रदेशो में निवास कर रहे है | आज महार जाती का प्राचीन इतिहास समय चक्र में दब गया या जान बुझ कर दबा दिया गया है या नष्ट कर दिया गया है | आज हमें महार जाती के इतिहास को जानना अत्यंत आवश्यक है |महार जाती का जो भी इतिहास आज मालूम है , ज्यादातर अनुमानों पर एवम आर्यों के धार्मिक ग्रंथो पर आधारित है |अतः यह महार जाती का इतिहास तर्क के आधार पर एवम पिछले लेखको एवं बुद्धि जीवियों के ग्रंथो के आधार पर निर्मित है |जनमानस की परंपरागत भावनाओ इच्छाओ को ध्यान में रखा जाए तो महार ही न केवल महाराष्ट्र के बल्कि भारत के मूल निवासी रहे है | सामान्यतः महार शब्द से ही महाराष्ट्र का नामकरण हुआ है | इस मत का समर्थन डॉ केतकर एवम राजराम शास्त्री भागवत ने कियाकुछ दशक पहले महारो की बहुत ही बदहाली एवम विपन्न परिस्थिति के कारन महाराष्ट्र नाम महारो से नहीं आया है ऐसा कुछ लोग अर्थ निकालते है |परन्तु यह विचारधारा बिलकुल भी ठीक प्रतीत नहीं होती है | भूतकाल में महार जाती सम्रद्ध जाती थी ,ऐसा मानना सही प्रतीत होता है | महारो से महाराष्ट्र का नाम आया इस तरह का मानना मोल्यव ने मराठी शब्दकोष में किया है| इसी शब्द की पुनरावर्ती जान विल्सन ने भी की है | तथा इन्ही अर्थो के आधार पर उन्होंने " गाव जहा महारावाडा "इस युक्ति को अमली जामा पहनाया है| महाराष्ट्र की लेखिका इरावती कुर्वे कहती है | "जहा तक महार वहा तक महाराष्ट्र " इससे भी महारो को महाराष्ट्र का मूल निवासी समझा जा सकता है | लेकिन लेखक का मानना है महार जाती के लोग केवल महाराष्ट्र में ही सिमिति नहीं है बल्कि संपूर्ण भारत वर्ष में सभी प्रान्तों में निवास करते है | महारो को प्रत्येक प्रान्त में अलग-अलग नमो से जाना जाता है जैसे मेहरा ,महरा ,महेरा ,जंकी,होलिया,परवारी,सिधवार,चोखा मेला ,बधोरा, मांग, भादिगा ,कथिवास.भुयाल ,भूमिपुत्र ,कोटवार ,बुनकर ,आदि नामों से जाना जाता है |
भारत का प्राचीन इतिहास देखा जाये तो ज्ञात होता है की आर्य लोगो ने भारत में रहने वाले द्रविड़ संस्कृति के लोग नागवंशियों पर आक्रमण कर उन्हें युध्द में पराजित किया तथा उनका बड़ी संख्या में संहार किया ,ये आर्य उत्तर भारत से तथा खैबर दर्रे से झुण्ड बनाकर कबीलों में आये और भारत की प्राचीन द्रविड़ नागवंशी संस्कृति को न केवल नष्ट किया बल्कि उनके इतिहास का विनाश किया | इस सब के बाद भी महार विद्वानों ने अपना इतिहास खोज निकाला | महार जाती का पूर्व नाम नागवंशी या नागलोक था | क्योकि ये जाती बड़ी संख्या में नाग नदी के तट पर निवास करती थी|उनके अनेक नगर थे जब आर्यों ने भारत में पंचनदी प्रदेश में प्रवेश किया तब वह शेष ,बासुकी,ध्रतराष्ट्र ,ऐरावत,अलापत्र ,तक्षक ,काकाकोटक इत्यादी नाग्कुल के नागराजा राज्य करते थे |आर्यों द्वारा नागलोगो को युध्द में पराजित कर उनकी बस्तियों पर कब्जा कर लिया | खांडव वन जलने का मुख्य कारण यह है कि जंगलों में नाग लोग रहते थे |वे समय पर आर्यों से युध्द करते थे | तब आर्यों ने खांडव वन को जलाकर नागलोगो को नष्ट करने का लक्ष्य बनाया इस मन का समर्थन इरावती कर्वे ने अपनी पुस्तक "युगांत" में किया है |कृष्ण-अर्जुन ने तक्षक नाग का वध करने की कोशिश की लेकिन तक्षक मारा नहीं न ही अपने निवास से भागा | तक्षक ने अपने जाती पर होने वाले जुल्म के बदले में राजा परीक्षित को मर डाला | तब परीक्षित के लड़के ने नागलोगो को समूल नष्ट करने का प्रण किया | उसने यज्ञ की शुरुआत की यज्ञ में नागलोगों को पकड़-पकड़ कर आहुति देने का कार्य संपन्न किया डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर कहते थे की आर्य लोगो के मन में नागलोगों के प्रति जो विड्येश भाव के पहले अनंत नमक नागवंशी योद्धा,कर्ण से मुलाकात करके युध्द में उनकी मदद करना चाहता था | लेकिन कर्ण ने इसलिए अस्विकार किया क्योंकि कर्ण आर्य था अनंत नाग यानि अनार्य था |
महार भी नागवंशी है उनका निवास स्थान प्रमुख रूप से नागपुर था | महार नागवंशी थे इसका समर्थन डॉ बाबासाहेब आम्बेडकर तथा राजाराम शास्त्री के द्वारा किया गया है | महारों में नागपूजा और खुद के नाम के आगे नाग लिखना नागवंशी का धोतक है | नागवंशी लोगो के देवता महादेव थे | जो की नागवंशी होने का प्रतिक है | जब आर्य पंचनदी प्रदेश को लांग कर दक्षिण के महाराष्ट्र में आये तो उनकी पहली मुलाकात नागवंशी (महार) लोगों से हुई होगी आर्यों ने नाग लोगो का विनाश किया इस तथ्य को निरुपित करते हुए डॉ बाबा साहेब आम्बेडकर कहते है कि आर्यों की विजय का कारण उनका वाहन था जो कि घोडो पर सवार होकर लड़ते जबकी नागलोग पैदल लड़ते थे इसलिए नाग लोगो को उत्तर से दक्षिण तक हर का सामना करना पड़ा फिर भी नाग लोगो ने यह लडाई बड़ी शूरता से लड़ी जो की आज भी जारी है|

छत्तीसगढ़ की अनुसूचित जातियॉं

छत्तीसगढ़ की अनुसूचित जातियॉं
1. औधेलिया, 2. बागरी, बागड़ी, 3. बहना, बहाना, 4. बलाही, बलाई, 5. बाछड़ा, 6. बराहर, वसोड, 7. वरगुंड़ा, 8. वसोर, वरुड़ बंसोर, बांसोड़ी, बांसफोड़, बसार, 9. बेंड़िया, 10. बेलदार, सुरकर, 11. भंगी, मेहतर, बालमीक, लालवेगी, घरकार, 12. भानुमती, 13. चडार, 14. चमार, चमारी, वैरवा, भांबी, चाटव, मोची रेगड़, नौना, रोहीदास, रामनामी, सतनामी, सुर्यवंशी, सुर्य रामनामी, अहिरवार, चमार मांगन, रैदास, 15. चिदार, 16. चिकवा, चिकवी, 17. चितार, 18. दहायत, दहाइत, दहात, 19. देवार, 20. धानुक, 21. ढ़ेड, ढ़ेर, 22. डोहोर, 23. डोम, डुमार, डोमे, डोमर, डोरिस, 24. गांड़ा गांड़ी, 25. घासी, घसिया, 26. होलिया, 27. कंजर, 28. कतिया,पथरिय, 29. खटीक, 30. कोली, कोरी, 31. कनेरा,खंगार, मिरधा, 32. कुचबंधिया, 33. महार, मेहरा, मेहर, 34. मांग, मांगगरोड़ी, मांग गारुड़ी दंखनी मांग, मांग महाशी, मदारी, गारुड़ी, राधे मांग, 35. मेघवाल, 36. मोघिया, 37. मुसखान, 38. नट, कालबेलिया, सपेरा, नवदिगार, कुबुतर, 39. पासी, 40. रुज्झर, 41. सांसी, सांसिया, 42. सिलावट, 43. झमराल ।
छत्तीसगढ़ की अनुसूचित जनजातियॉं
1. अगरिया, 2. आंध, 3. बैगा, 4. भैना, 5. भारिआ, भूमिआ, भुईहर भूमियॉं, भूमिआ, भारिया, पलिहा, पांडो, 6. भतरा, 7. भील, भिलाला, बरेला, पटलिया, 8. भील मीना, 9. भुंजिया, 10. बिअर, बिआर, 11. बिन्झवार, 12. बिरहुल बिरहोर, 13. डोमार, डमोर, डामरिया, 14. धनवार, 15. गदाबा गदबा, 16. गोड़, अरख, अगरिया, असुर बड़ी माड़िया, बड़ा मारिया, भटोला, भिमा, भूता, कोइलाभूता, कोइलाभूती, भार, विसानहार्न मारिया, छोटा मारिया, दंडामी मारिया, घुरु, धुरवा, धोवा, धूलिया, दोरला, नायकी, गट्टा, गट्टी, गैटा, गोंड गोवारी, हिल मारिया, कंडरा कलंगा, खटोला, कोईतर, कोया, खिरवार, खिरवारा, कुचा मारिया, कुचाकी मारिया, माड़िया, मारिया, माना, मन्नेवार, मोगिया, मोध्या, मुड़िया, मुरिया, नगारची, नागवंशी, ओझा, राज गोड़, सोनझारी, झरेका, थाटिया, थोट्या, बड़े माडिया, दरोई, 17. हल्वा, हल्वी, 18. कमार, 19. कारकू, 20. कवर, कंवर, कौर, चेरवा, राठिया, तंवर क्षत्री, 21. खैरवार, कोंदर, 22. खरिया, 23. कौंध, खोंड कांध, 24. कोल, 25. कोलम, 26. कोरकू, बोंचपी, मवासी, निहाल, नाहुल, बॉधी बोंडेया, 27. कोरवा, काडाकूं, 28मांझी, 29. मझवार, 30. मवासी, 31. मुण्डा, 32. नागेसिया, नगासिया, 33. उरांव, धनका, धनगढ़, 34. पाव, 35. पारधान, पथारी, सरोती, 36. पारधी, बहेरिया, बहेलिया, चिता पारछी, लंगोली पारछी, फांस पारधी, शिकारी, टाकनकर, टाकिया ।
(1) बस्तर, दंतेवाड़, रायगढ़, जशपुर, सरगुजा तथा कोरबा जिले में (2) कोरबा, जिले के कटघोरा, पाली, करतला और कोरबा तहसील में (3) बिलासपुर जिले के बिलासपुर, पेंड्रा, कोटा और तखतपुर तहसील में (4) दुर्ग जिले की दुर्ग, पाटन, बालोद, गुंडरदेही, गुरु, डौंडी लोहारा और धमधा तहसील में (5) राजनांदगांव जिले के चौकी, मानपुर और मोहला राजस्व निरीक्षकों के क्षेत्रों में (6) महासमुन्द जिले के महासमुन्द, सराईपाली, और बसना तहसील में (7) रायपुर जिले के बिन्द्रानवागढ़, राजिम और देवभोग तहसील में (8) धमतरी जिले के धमतरी, कुरुद और सिहावा तहसील में । 37. परजा, 38. सहारिया, सेहरिया, सोसिया, सोर, 39. साओंता, सौंता, 40. सौर, 41. सावर, सवरा, 42. सौंर ।
विशेष निर्देश :- (अ) छत्तीसगढ़ शासन के सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा मान्य जाति के अलावा अन्य कोई जाति मान्य नहीं है । यदि कोई छात्र उक्त जाति के अलावा अन्य जाति का प्रमाण पत्र देगा तो वह मान्य नहीं होगा । उसे निर्धारित सम्पूर्ण शुल्क का भुगतान करना होगा ।
  (ब) अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्रों को जाति प्रमाण पत्र में इस सूची में अंकित जाति का सं.क्र. अंकित करना अनिवार्य है ।
  (स) कलेक्टर (आदिम जाति कल्याण विभाग) रायपुर छत्तीसगढ़ के अनुसार मुस्लिम धर्म मानने वाले व्यक्ति अनुसूचित जाति अथवा अनुसूचित जनजाती की श्रेणी में नहीं आते । केवल अनुसूचित जनजाति के वे व्यक्ति जो ईसाई धर्म अपना लिए हैं वह अनुसूचित जाति को मिलने वाले लाभ के हकदार हैं तथा अनुसूचित जाति के जो भी व्यक्ति बौद्ध धर्म अपना लिए वे पिछड़ा जाति को मिलने वाले लाभों के हकदार हैं ।

अछूत गाँव के बाहर क्यों रहते हैं?

अछूत गाँव के बाहर क्यों रहते हैं?

स्वाभाविक तौर पर इस बारे में किसी का कुछ सिद्धान्त नहीं है कि अछूत गाँव से बाहर क्यों रहने लगे। यह तो हिन्दू शास्त्रों का मत है और यदि कोई इसे सिद्धान्त मान कर उचित कहे तो वह कह सकता है। शास्त्रों का मत है कि अंत्यजो को गाँव के बाहर रहना चाहिये;

मनु का कथन है;

१०.५१. चाण्डालों और खपचों का निवास गाँव से बाहर हो। उन्हे अपपात्र बनाया जाय । उनका धन कुत्ते और गधे हों।
१०.५२. मुर्दों के उतरन उनके वस्त्र हों, वे टूटे बरतनों में भोजन करें। उनके गहने काले लोहे के हों और वे सदैव जगह जगह घूमते रहें।

इस कथन के दो अर्थ लिये जा सकते हैं..

१. अछूत हमेशा से गाँव के बाहर रहते आये और अस्पृश्यता के कलंक के बाद उनका गाँव में आना निषिद्ध हो गया।
२. वे मूलतः गाँव के अन्दर रहते थे पर अस्पृश्यता का कलंक लगने के बाद उन्हे गाँव से बाहर किया गया।

दूसरी सम्भावना बेसिर पैर की कल्पना ही है क्योंकि पूरे भारत वर्ष में गाँव के भीतर बस रहे अछूतों को निकालकर गाँव के बाहर बसाना लगभग असंभव कार्य लगता है। यदि संभव होता भी तो इसके लिये किसी चक्रवर्ती राजा की ज़रूरत होती, और भारत में ऐसा कोई चक्रवर्ती राजा नहीं हुआ। तो इस दूसरी सम्भावना को छोड़ देने पर इस बात पर विचार किया जाय कि अछूत शुरु से ही गाँव के बाहर क्यों रहते थे।

आदिम समाज रक्त सम्बन्ध पर आधारित कबायली समूह था मगर वर्तमान समाज नस्लों के समूह में बदल चुका है। साथ ही साथ आदिम समाज खानाबदोश जातियों का बना था और वर्तमान समाज एक जगह बनी बस्तियों का समूह है। इस यात्रा में ही हमारे प्रश्न का उत्तर है।

आदिम लोग पशुपालन करते और अपने पशुओ को लेकर कहीं भी चले जाते। ये बात भी याद रहे कि ये कबीले और जातियां पशुओं की चोरी और स्त्रियों के हरण के लिये आपस में अक्सर युद्ध करते रहते। इन युद्धों दौरान जो दल परास्त होता वह टुकड़े टुकड़े हो जाता और इस तरह परास्त हुए लोग छितरे बिखरे हो कर इधर उधर घूमते रहते। आदिम समाज में हर व्यक्ति का अस्तित्त्व अपने कबीले से हो कर ही होता था, कोई भी व्यक्ति जो एक कबीले में पैदा हुआ हो वह दूसरे कबीले में शामिल नहीं हो सकता था। तो इस तरह से छितरे व्यक्ति (broken man) एक गहरी समस्या के शिकार थे।

आदिम मानव को जब एक नई संपदा- भूमि का पता चला तो उनका जीवन धीरे धीरे स्थिर हो गया। पर सभी घुमन्तु कबीले और जातियां एक ही समय पर स्थिर नहीं हुए। कुछ स्थिर हो गये और कुछ घुमन्तु बने रहे। तब घुमन्तु लोगों को बसे हुए लोगों की सम्पत्ति देख कर लालच होता और वे उन पर हमला करते। जबकि बसे हुए लोग, अपना घर बार छोड़कर इन घुमन्तुओ का पीछा करना और मारकाट करना नहीं चाहते थे, और वे अपनी रक्षा में कमज़ोर हो गए थे। उन्हे कोई ऐसे लोग चाहिये थे जो घुमन्तुओं के आक्रमण में उनकी पहरेदारी करें। दूसरी तरफ़ छितरे लोगों की समस्या थी कि उन्हे ऐसे लोग चाहिये थे जो उन्हे शरण और संरक्षण दे।

इन दोनों समूहों ने अपनी समस्या को कैसे सुलझाया इसका हमारे पास कोई दस्तावेज़ कोई प्रमाण नहीं है। जो भी समझौता हुआ होगा उसमें दो बाते ज़रूर विचारणीय होगीं- एक तो रक्त सम्बन्ध और दूसरी युद्ध नीति। आदिम मान्यता के अनुसार रक्त सम्बन्धी ही एक साथ रह सकते हैं और युद्ध नीति के अनुसार पहरेदार को चाहिये कि वह सीमाओं पर रहें।
पर इस बात का क्या कोई ठोस प्रमाण है कि अछूत छितरे हुए व्यक्ति ही हैं?

क्या अछूत छितरे व्यक्ति हैं?

मेरा उत्तर है "हाँ"। गाँव में बसने वाली जाति और अछूतों की गण देवों की भिन्न्ता ही इसका सर्वश्रेष्ठ प्रमाण होगी पर इस तरह का अध्ययन अनुपलब्ध है।

भाषा का सहारा लेकर देखें तो अछूतों को दिए गये नाम, अन्त्य, अन्त्यज अन्त्यवासिन, अंत धातु से निकले हैं। हिन्दू पण्डितों का कहना है इन शब्दों का अर्थ अंत में पदा हुआ है मगर यह तर्क बेहूदा है क्योंकि अंत में तो शूद्र पैदा हुए हैं। जबकि अछूत तो ब्रह्मा की सृष्टि रचना से बाहर का प्राणी है। शूद्र सवर्ण है जबकि अछूत अवर्ण है। मेरी समझ में अन्त्यज का अर्थ सृष्टि क्रम का अंत नहीं, गाँव का अंत है। यह एक नाम है जो गाँव की सीमा पर रहने वाले लोगों को दिया गया।

दूसरा तथ्य महाराष्ट्र की सबसे बड़ी अछूत जाति महारो से सम्बन्धित है। इनके बारे में ध्यान देने योग्य है कि..

१. महाराष्ट्र के हर गाँव के गिर्द एक दीवार रहती है और महार उस दीवार के बाहर रहते हैं।
२. महार बारी बारी से गाँव की पहरेदारी करते हैं
३. महार हिन्दू गाँव वासियों के विरुद्ध अपने ५२ अधिकारों का दावा करते हैं जिनमें मुख्य हैं;
अ. गाँव के लोगों से खाना इकट्ठा करने का अधिकार
ब. फ़सल के समय हर गाँव से अनाज इकट्ठा करने का अधिकार
स. गाँव के मरे हुए पशुओ पर अधिकार

अनुश्रुति है कि ये अधिकार महारों को बरार के मुस्लिम राजाओं से प्राप्त हुए । इसका मतलब इतना ही हो सकता है कि इन प्राचीन अधिकारों को बरार के राजा ने नए सिरे से मान्यता दी।
ये तथ्य बहुत मामूली हैं फिर भी इतना तो प्रमाणित करते हैं कि अछूत आरंभ से ही गाँव से बाहर रहते आए हैं।

महाहर

Ashish yadav on July 18, 2010 at 3:35pm
पहले तो मै 'रवि कुमार गिरी जी' को प्रणाम करता हूँ की उन्होंने इतनी अच्छी बात शुरू की. अब मै भगवान् भोलेनाथ का नाम लेकर उन्ही के बारे में बता रहा हु. गाजीपुर जिले में एक गाजीपुर-मऊ संपर्क मार्ग पर एक स्थान है मरदह. मरदह से पूरब की तरफ करीब ४ या ५ कि० मि० की दुरी पर स्थान है महाहर. वैसे तो इस स्थान को वहा के स्थानीय लोग महारे या महार कह कर पुकारते है. वही महाहर में भगवान् भोलेनाथ का मंदिर है जो पुरे गाजीपुर में प्रसिद्द है. वहा पे इस मंदिर के अलावा भी कई देवी और देवताओ के मंदिर हैं, जैसे भगवान् कृष्ण, माता दुर्गा, राम जी, भैरव बाबा, कुल १५वो मंदिर है. लेकिन सबसे आस्थावान मंदिर भगवान भोले का ही है. अपने कन्धों पे रख कर अपने माता-पिता को सभी तीर्थों की सैर कराने वाले श्रवन कुमार को दसरथ जी ने यही पे मारा था. कहा जाता है की यहाँ पे बहुत सारा सोना चाँदी गाड़ा गया है. कई बार कई लोगो ने यहाँ पे खुदाई करवाने का प्रयास किया लेकिन उनके घर कोई न कोई अशुभ घटना घट गई. सावन के महीने में यहाँ पे बहुत दूर दूर से लोग आते है. वैसे तो तो हर सोमवार को काफी भीड़ रहती है किन्तु सावन के प्रत्येक सोमवार को यहाँ पे हज़ारों की संख्या में श्रद्धालु आते है. यहाँ पर महाशिवरात्रि के दिन मेला लगता है जो करीब ३ दिनों तक चलता है. और भी बाते है इसके सम बांध में जो फिर कभी जिक्र करूँगा. हर हर महादेव जय शिव शंकर
Ravi Kumar Giri (Guru Jee) on June 11, 2010 at 1:06pm मैं यहाँ जिस मंदिर ka जिक्र करने जा रहा हु वह मंदिर बिहार में छपरा और सिवान जिला के बोर्डर पर हैं महेंद्र नाथ मंदिर जिसे वहा लोकल भासा में मेहंदार कहा जाता हैं . इस मंदिर के बिसय में एक दन्त कथा हैं की ये इलाका पहले नेपाल के अधीन था और यहाँ के राजा थे रजा महेंद्र जिन्हें चर्म रोग था , एक बार वो इस इलाका से हो कर गुजर रहे थे कोशो दूर कोई गावं ना था , उन्होंने एक सिपाही से पानी लाने के लिए कहे ओ पानी के लिए गया लेकिन उसे कही पानी नहीं मिला एक जगह कुछ सुआर खोद कर गद्दा बनाये थे जिसमे पानी था और ओ साफ भी था वही पानी लेकर राजा के पास चला गया , राजा जैसे ही हाथ धोये उनका हाथ का दाग ठीक हो गया उन्होंने सिपाही से पूछा ये पानी कहा से लाया , सिपाही दर कर कापने लगा और बोला जन बक्से तो बताऊ , राजा ने कहा उस जगह ले चलो तुम्हे इनाम दिया जायेगा , सिपाही वहा ले गया और राजा उशी पानी में लोट पोट हो गए और उनका पूरा सरीर ठीक हो गया , फिर राजा वहा बावन बीघा में पैसा चिट्वा कर हल चलवा दिए और कहा जिसे पैसा चाहिए माटी उठाये और बाहर जाकर फेके और पैसा ले एसा रोज होने लगा और एक बड़ी पोखरा की खुदाई हो गई और राजा वहा एक भागवान शंकर की मंदिर बनवाए , और ओ मंदिर महेंद्रा नाथ और मेह्दार के नाम से मशहुर हैं , आज भी लोग कहते हैं वहा जो भी मन से माँगा जाय ओ पूरा होता हैं , बोलो प्रेम से शंकर भागवान की जय , हर हर महादेव ,

महार हा गावाचा हरकाम्या. तो ओरडून दवंडी देई

महार हा गावाचा हरकाम्या. तो ओरडून दवंडी देई. प्रेताचे सरण वाही. जागल्या म्हणजे पहारेकरी. हा बहुदा महार जातीचा. गावराखण करणाऱ्या महाराला चारी सीमा बारकाईने माहित. म्हणून जमीन जुमला, घरदार या स्थावरांच्या वादात त्याची साक्ष महत्वाची. वेसकर या महाराने वेशीचे दरवाजे रात्री बंद करुन सकाळी उघडायचे.
कुसू म्हणजे गावाभोवतीची संरक्षक भिंत. वेस म्हणजे त्या भिंतीमधला प्रवेश दरवाजा. स्पृश्यांची घरे गावकुसाच्या आत. अस्पृश्य, भटक्या जमाती, नव्याने वस्तीला आलेल्या जंगली जाती याची घरे, पाले, झोपड्या गावकुसाबाहेर. चांभार, भंगी गोमांस न खाणारी मंडळी गावकुसाला चिकटून तर महारवाडा, मांगवाडा दूर. या जाती ‘पड’ म्हणजे मेलेली गुरे खातात म्हणून त्यांच्याशी दुरावा. गावाला पश्चिमेचा वारा शुध्द मिळावा म्हणून महार व मांगवाडे पूर्वेला. चाभारगोंदे ऊर्फ श्रीगोंदे येथे मात्र परंपरेने चांभारवाडा मध्यवस्तीत असे. स्पृश्य आणि अस्पृश्य दोन्ही वस्त्यांमधे घरे जातवार गटाने असत. त्यांना जातवार नावे. सुतार आळी, माळी आळी, रामोशीवाडी, भिलाटी इत्यादि. असो.
प्रवाशांचे सामान उचलणारा महार तो तराळ. करवसुलीसाठी शेतकऱ्यांना बोलावून आणणारा तो महारच. होळी पेटवायची ती महाराने. देवीची शांत करण्यासाठी रेडा बळी द्यायचा तो महाराने. रस्ते सफाई, मेलेली गुरे ओढून नेणे ही सुध्दा महाराची कामे. त्या गुरांची चामडी महारानेच घ्यायची. महारांची कामे लोकांनी पाळीपाळीने करायची असत. कामांबद्दल महारांना कसायला थोडी जमीन मिळे. तिला नाव हाडकी. घरपट्टी, गुरेपट्टी महारांना माफ. महारांची लग्न सराई आषाढात. का तर त्या महिन्यात सवर्णांची लग्ने होत नाहीत म्हणून महारांना जरा सवड असते. महार हा पाटलाचा “प्यून” . पण पाटलाची गादी गावचावडी आणि महाराला चावडीची पायरी चढता येत नाही म्हणून तेथे पाटलाची सेवा करण्यासाठी चौगुला हा पाटलाच्या जातीचा माणूसः
चावडीत दिवा बत्ती, पाणी भरणे ही कामे भोयांची. देवळाची झाडलोट, पूजा, तेलवात ही कामे गुरवांची. दसरा, शमीपूजन, तुळशीचे लग्न या दिवशी पाने, फुले, फळे थोरामोठ्यांच्या घरी नेऊन देणे, लग्नाची आमंत्रणे वाटणे, गावजेवणाच्या पत्रावळी लावणे ही कामे सुध्दा गुरवाने करायची. लग्नात शेला, जेवण हे त्यांच्या हक्काचे. गावात देवाची कामे करणारे वेगवेगळे लोक असू शकतात. गुरव हा गावदेवीचा पुजारी. भगत हा भूत काढून टाकणारा. खंडोबाचा पुजारी वाघ्या तर लिंगायतांचा पुजारी जंगम.
बलुतेदार हे गावाचे वतनदार. वतन म्हणजे पदाचे पिढीजात हक्क. बलुतेदारांना मजुरी नाही. पिकात हिस्सा, समारंभात मानपान, थोडीबहुत बिनखंडाने जमीन, घराला जागा. म्हणजेच जगण्याची व्यवस्था. पण मजुरी नाही.
गावाचा राज्यकर्त्यांशी संबंध बेताचाच असे. कर दिला म्हणजे झाले. सरकारने गावासाठी काही करावे अशी अपेक्षा नसे. अत्याचार केले नाहीत म्हणजे झाले. पाटील कर गोळा करे. महार सगळ्या शेतकऱ्यांना बोलावून आणे. ते धान्य देत